शिक्षा और दान : समाज की आवश्यकता ।
विश्व इतिहास में सदियों तक भारत अपने ज्ञान एवं मूल्यों के कारण विश्वगुरु के रूप में सम्पूजित एवं प्रतिष्ठित रहा है। महर्षि वशिष्ठ, महात्मा विदुर, मनु, चाणक्य, कबीर, नानक जैसे अनेक आचार्यों ने जो ज्ञान गंगा प्रवाहित की वह अद्यावधि सम्पूर्ण राष्ट्र को सम्पोषित एवं पुनीत बनाये हुए है। ‘माता भूमि पुत्रोऽहं पृथिव्या' और 'वसुधैव कुटुम्बकम्' जैसे प्रेरणास्पद वचनों से सारे संसार का पथ प्रदर्शन करने वाली हमारी यह पवित्र भारतभूमि ही है।
वस्तुतः समाज तथा देश को आगे बढ़ाने में सबसे अहम है-शिक्षा।
शिक्षा के लिए प्राय: विद्या, ज्ञान, प्रबोध, एज्यूकेशन, पैडागोगी आदि शब्दों का प्रयोग किया जाता रहा है। वेद, पुराण, उपनिषद्, दर्शन और साहित्य सभी में शिक्षा की विस्तृत व्याख्याएँ प्रस्तुत की गई हैं। यथा ‘किम्-किम् न साध्यति कल्पलतेव विद्या’, ‘विद्याधनमधनानाम्’, ‘विद्यागुरुणां गुरु', ‘विद्या धन सर्व धन प्रधानम्’, ‘विद्वान् सर्वत्र पूज्यते' कहते हुए विद्या की महिमा का वर्णन किया है। इन्होंने विद्या के अभाव में मनुष्य को पशु समान कहा है-‘विद्या विहीनः पशुः । शंकराचार्य ने ‘स्वयं को जानना शिक्षा है' ऐसा कहकर आत्मबोध का कारक शिक्षा को माना है। कौटिल्य ने राष्ट्रप्रेम के लिए शिक्षा की भूमिका निश्चित की है। उनके अनुसार शिक्षा का अर्थ है देश के लिए प्रशिक्षण और राष्ट्र के प्रति प्यार'। शास्त्रों में शिक्षा विहीन बालक के अभिभावक को शत्रु की संज्ञा दी है- ‘माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः'। स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में, ‘हमें ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है जो हमारा आचरण बनाये, हमारे मानसिक बल को बढ़ाए, बौद्धिकता का विकास करे और जिसके द्वारा मनुष्य आत्मनिर्भर हो जाए। इस प्रकार विभिन्न भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वानों ने समाज के सर्वांगीण विकास में शिक्षा को अत्यन्त महनीय तत्त्व माना है। अंग्रेजी भाषा में शिक्षा के अर्थ का निचोड़ बताते हुए कहा गया है, "Education is the Modification of behaviour" शिक्षा व्यवहार में परिवर्तन करती है। सारांशत: शिक्षा दानव को मानव बनाती है।
जिस तरह शिक्षा मानव, समाज और राष्ट्र के लिए परमावश्यक है उसी तरह शिक्षा को अधिकाधिक लोगों तक पहुँचाने के लिए धन की आवश्यकता है। धनाभाव में अनेक प्रतिभाशाली और अध्ययनशील विद्यार्थी शिक्षा से वंचित रह जाते हैं। देश की सामाजिक, आर्थिक, भौगोलिक एवं राजनीतिक विषमताओं के कारण सम्पूर्ण साक्षर-शिक्षित भारत का सपना साकार नहीं हो पा रहा है। ऐसे में जरूरत है ऐसे शिक्षा संस्थानों की जो सरकारी तंत्र की विसंगतियों और निजी क्षेत्र की दुर्लभता का मध्यम मार्ग बने। ऐसे विद्यालय परस्पर सहयोग और सामञ्जस्य से स्थापित किये जा सकते हैं। ऐसे विद्यालयों की स्थापना और संचालन में मजबूत इच्छाशक्ति, समर्पण, सेवा भावना और दानदाताओं का सहयोग अत्यन्त अपेक्षित है। वस्तुत: सामाजिक संगठनों, समाजसेवियों एवं दानवीरों के सहयोग के बिना शिक्षा रूपी प्रकाश के सर्वत्र प्रसार की कल्पना करना कठिन है। महर्षि दधीचि, राजा बलि और अंगराज कर्ण जैसे अनेक महात्मा अपनी दानवीरता के लिए कलियुग के दानदाताओं के लिए आदर्श प्रतिमान हैं। समाज की आर्थिक परिस्थितियों और शिक्षा की आवश्यकता को समझते हुए दानदाताओं को शिक्षार्थ दान देने में उदारता बरतनी चाहिए। महाभारत में कहा गया है कि- 'कलियुग में दान ही एकमात्र धर्म है। स्वामी विवेकानन्द ने चार प्रमुख दानोंधर्म दान, विद्या दान, प्राण दान एवं अन्न-जल दान में से विद्यादान को प्राणदान से भी श्रेष्ठ एवं उच्चतर माना है। फलतः सामर्थ्यवान को चाहिए कि विद्या जैसे महान् तप की साधना के लिए दान रूपी धर्म का पालन करते हुए अधिकाधिक दान करना चाहिए। प्रायः दानदाता की यह अपेक्षा रहती है कि उसके द्वारा दिया गया दान (धन) किसी सत्कार्य अथवा उद्देश्य की पूर्ति में सहायक बने और शिक्षा से उत्तम सत्कार्य भला क्या हो सकता है! अतः विद्यावान्-दानवान् नागरिकों के समन्वय से समाज तथा राष्ट्र का विकास निश्चित है। शिक्षा और दान का परस्पर अटूट सम्बन्ध है। 'शिक्षा का दान' अथवा 'शिक्षा के लिए दान' इस अभिप्राय को शिक्षित एवं परोपकारी समाज को आत्मसात् करते हुए ऐसे पुनीत कार्य के लिए यथा-सम्भव, यथाशक्ति सहयोग करना ही चाहिए।
